लोक स्वप्न का सत्य, बच्चों की पत्रिका - बालमन, भ्रष्टाचार के शलाखा पुरुष
- समीक्षक - कुबेर
छत्तीसगढ़
के साहित्यिक इतिहास में लोकस्वप्र में लिलिहंसा का प्रकाशन एक सुखद और
गौरव प्रदान करने वाली घटना है। इसमें बारह संदर्भ संग्रहीत है, जिसमें कुछ
शोध आलेख और शेष निबंध हैं। पुस्तक में लोक वर्ग का, लोकविधाओं एवं
लोकोत्तर विषयों के साथ अंतर्सबंधों, प्रभावों, आंतरिक एवं बाहा्र बुनावटों
के तानों - बानों का विशद् तर्कपूर्ण और प्रमाणिक विवेचन किया गया है।
मानव - समाज, चाहे लोकवर्ग हो अथवा शिष्टï वर्ग सभी के पक्षों पर आज पूँजी
और व्यापार का निरंकुश हस्तक्षेप होने के कारण समाज का पूर्णरूपेण
बाजारीकरण हो चुका है और आज समाज उत्तर आधुनिकता के युग में प्रवेश कर
विचार - शून्यता तथा संवेदनहीनता की स्थिति में पहुँच चुका है। लोक पर
प्रभुवर्ग तथा बाजार के प्रभावो की विशद् व्याख्या विवाह बाजार = लिलिहंसा
घोड़े का स्वप्र तथा लोक में बाजार का प्रवेश नामक प्रकरण में किया गया है।
बाजार के विषय में कहा गया है कि यह पूर्णरूप से अमानवीय होता है, मानवीय
संवेदनाओं से इसका कोई सरोकार नहीं होता। आज मुनष्य पूर्णत: निर्दयी बाजार
के शिकंजे में कंसता चला जा रहा है। वह हमेशा बाजार में ही रहने लगा है-
खरीदता हुआ, बेचता हुआ अथवा बिकता हुआ। बाजार की निर्दयता और अमानवीयता के
चलते आज मनुष्य एक जिंस मात्र बन कर रह गया है। बाजार के इसी अमानवीयकरण के
कारण आज नरभक्षी संस्कृति का भूमंडलीयकरण हो चुका है। पाँच सितारा होटलों
में मनुष्य के माँस की माँग आज सर्वाधिक हो रही है।
प्रकरण में आगे कहा गया है कि बाजार का लोक प्रवेश परंपराओं के माध्यम से
होता है। लोक परम्पराओं को बाजार कच्चे माल के रूप में प्रयोग करता है। अंत
में ग्राहकों के मध्या ही प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न कर स्वयं लोकनियंता बन
जाता है। आज बाजार एक विचार के रूप में परिवर्तित हो चुका है। भविष्य की
संस्कृति,बाजार की संस्कृति होगी।
अभी कुछ दिन पूर्व किसी म्यूजिक चैनल पर एक अंग्रेजी गाना दिखाया जा रहा
था। सभी नर्तक पिशाचों की वेशभूषा में थे। और कुछ बच्चों को घेर कर पैशाचिक
नृत्य कर रहे थे। न सिर्फ वे पैशाचिक नृत्य कर रहे थे बच्चे के रक्त और
माँस का भक्षण भी कर रहे थे। एक - एक कर बच्चों को मार और खा रहे थे। अंत
में बचे हुए एक बच्चे पर सभी एक साथ टूट पड़ते हैं। बच्चों का क्रन्दन सुनकर
वे आह्रïलादित हो रहे थे।
इस प्रकार के नृत्य की परिकल्पना प्रस्तुतिकरण और अवलोकन किस तरह की
मानसिकता को प्रगट करता है ? क्या ऐसे लोगों की अमानवीयता को दण्डित करने
वाला आज कोई नहीं है ?
पुस्तक के प्रथम सर्ग में लोक का अभिप्राय व्यक्त करते हुए लोक साहित्य व
शिष्ट साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। लोक साहित्य, लोकगीतों में
मुखर होता है। लोकगीतों में लोक व नारी की वेदना और असहायता का मार्मिक
चित्रण होता है।
बदलती हुई भाषा और छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में भाषा पर प्रभाव डालने वाले
तत्वों को रेखांकित किया गया है। भाषा पर लोक संस्कृति और औद्योगीकरण का
ही सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
लोक नाट्य नाचा के संदर्भ में लोक और शिष्टï के अंतर्सबंधों की विवेचना
करते हुए लोक नाट्य की उत्पत्ति के संबंध में कहा गया है कि शिष्टï साहित्य
वेद शूद्रों के लिए बर्ज्य होने के कारण भरत मुनि का नाट्य शास्त्र जिसे
पंचम वेद के रूप गृहीत किया गया है, शूद्रों के लिए स्पृहा्र हुआ।
लोक गीतों के आंतरिक और बाह्य बुनावट के संदर्भ में लोकाचार, संस्कार,
सामाजिक असमानता, जीवन की बारीकियाँ और व्यवस्था के प्रभावों की लोकगीतों
में अभिव्यक्ति की चर्चा की गई है।
लाकोत्सवों के प्रति हमारे नये सरोकार प्रकरण में लोक पर्वों की लोक
उत्सवों में रूपान्तरण के कारणों पर प्रकाश डालते हुए उत्पादन के साधनों को
प्रमुख कारण बताया गया है, परन्तु इस परिवर्तन के पीछे आधुनिक मीडिया के
प्र्रभावों का उल्लेख किया गया है।
मातृकाओं की कल्पना का लोकालंब में लोक में मान्य मातृशक्तियों के विभिन्न
रूपों का वर्णन किया गया है। जबकि छत्तीसगढ़ में वानस्पतिक पर्व और लोक
चिंता नामक प्रकरण में छत्तीसगढ़ में प्रचलित भोजली और जंवारा पर्वों का
उल्लेख करते हुए समाज के लोकवर्ग को प्रकृति के निकट और शिष्ट वर्ग को
प्रकृति से दूर जाते हुए बताया गया है।
हरियाली पर्व और टोनही अंधविश्वास संदर्भ में हरियाली पर्व में टोनही और
तांत्रिक साधना की परंपरा पर प्रकाश डाला गया है। टोनही अंधविश्वास के मूल
पर प्रहार भी किया गया है लेकिन यह तो हरियाली पर्व के उप ध्येय है।
हरियाली पर्व का मुख्य ध्येय कृषि और पशुपालन संस्कृति से संबंधित है जिस
पर चर्चा न होना आश्चर्यजनक है।
गाथा और इतिहास : कुछ अनुत्तरित प्रश्र संदर्भ दशमत कैना नामक संदर्भ में
विभिन्न अंचलों में प्रचलित लोक गाथाओं के स्वरूपों की एकरूपता सिद्ध करते
हुए जसमा ओड़न, दसमत कैना, राजा माध्यदेव भोज देव और देवार जाति के
ऐतिहासिकता की प्रमाणिक व्याख्या प्रस्तुत किया गया है।
लोक में मनु की शेष परछाइयाँ में मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था, दण्ड विधान,
दान विधान, बलिप्रथा नारी विषयक अवधाणाओं की विशद् चर्चा की गई है और बताया
गया है कि मनुस्मृति किस प्रकार ब्राम्हण और क्षत्रियवर्णों का हित साधक
तथा शूद्रों के शोषण के विभिन्न उपादानों को उचित ठहराने वाला निंदनीय
ग्रन्थ है।
संग्रह में संग्रहीत संदर्भों की भाषा साहित्य के उच्च मापदण्डों के अनुरूप
एवं शैली विवेचनात्मक समीक्षात्मक है। चिंतन की अंर्तधारा से पाठक के
विचारों का तादाम्मय होता है। विषय की व्यापकता और चिंतन की गहराई के कारण
यह पुस्तक लोक कला व लोक साहित्य में विद्यार्थियों - शोधार्थियों के लिए
लोक कला व लोक साहित्य के विद्यार्थियों - शोधार्थियों के लिए संदर्भग्रन्थ
साबित होगी। पुस्तक पठनीय और संग्रह योग्य है।
भ्रष्ट्राचार के शलाका पुरूष
- कुबेर
व्यंग्य
को परिभाषित करने का प्रयास किया जाता रहा है परन्तु इसकी कोई निर्विवाद
और मान्य परिभाषा अब तक नजीं बन पाई है। व्यंग्य के पितामह परसाई भी इस
प्रतीत कार्य में असमर्थ रहे परन्तु व्यंग्य के पितामह परसाई भी इस पुनीत
कार्य में असमर्थ रहे, परन्तु व्यंग्य के लक्षण अथवा गुण अवश्य बता गये
हैं। वे कहते हैं - व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है। जीवन की आलोचना
करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्ड का पर्दाफाश करता है। व्यंग्य
एक माध्यम है, कोई राजनीतिक पार्टी नहीं। व्यंग्य उजागर और सचेत करता है।
सही व्यंग्य व्यापक जीवन परिवेश को समझने से आता है। आदि।
अन्य समीक्षकों ने व्यंग्य के और भी लक्षण बताते हैं। जैसे - व्यंग्य में
बेधक व मारक क्षमता होती है। विचारों की गहनता और करूणा की गहराई होती है।
व्यंग्य आक्रोश का बौद्धिक रूप है। यह न सिर्फ पाठक की संवेदनाओं को जगाता
है अपितु कुछ करने के लिए प्रेरित भी करता है।
रमेशचन्द्र मेहरोत्रा के अनुसार - कुछ यह साहित्य का ऐसा आवरण मंडित सत्य
होता है जो गूढ़ार्थ होने के कारण शब्दकोश और व्याकरण की सहायता से पकड़ में
नहीं आता।
आखिर व्यंग्य का यह सत्य क्या है ? व्यंग्य यदि विधा है तो यह सर्वव्यापी
कहानी लघुकथा, उपन्यास, निबंध, नाटक, प्रहसन, एकांकी, स्तंभ तथा कविता आदि
विद्यमान क्यों है ? कहानी से व्यंग्य कहानी, उपन्यास से व्यंग्य उपन्यास,
और कविता से व्यंग्य कविता में कायान्तरण कब, कैसे और क्यों होता है ?
स्पष्ट है कि अपने शिल्पगत विशेषताओं लेखकीय कौशल के कारण व्यंग्य गद्य में
भी काव्यात्मकता की अंतर्धारा प्रवाहित करने की क्षमता रखता है तथा
बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से कथ्य को उजागर करता है। अंतर्कथाओं के
माध्यम से रमणीयता और लालित्य का सृजन करता है। सूत्र वाक्यों के माध्यम से
पाठक के ह्रïदय और मस्तिष्क पर प्रहार करता है। ये सूत्र वाक्य, सूक्ति
वाक्यों अथवा अनमोल वचनों की तरह उपदेशात्मक नहीं होते, अपितु अचूक मारक
क्षमताओं से युक्त होते हैं, जो पाठक को हँसाता भी है और उसके अंतर्मन को
घायल भी करता है। इस प्रकार व्यंग्य का स्वरूप द्विविमीय और चरित्र
द्विगुणीय होता है।
व्यंग्य के क्षेत्र में कांशीपुरी कुन्दन सुपरिचित नाम है। भ्रष्ट्राचार
के शलाका पुरूष उनका तीसरा व्यंग्य संग्रह है। इस संग्रह में पच्चीस
व्यंग्य संग्रहीत है। मुझ पर करो पी.एच.डी. मुफ्त सलाहखोर, पुरानी चीजों को
टिकाने की कला, भूखों नहीं मरने के मान्य सिद्धान्त एवं परोपकारी जीव जैसी
कुछ रचनाओं को अलग कर देने से बांकी सभी रचनाएं कथ्य की दृष्टि से एक ही
व्यंग्य विषय का विस्तार प्रतीत होते हैं जिनके मूल स्वर राजनेताओं,
अपराधियों, पुलिस और अधिकारियों के द्वारा नैतिक पतन की गर्वीली
स्वीकारोक्ति है। व्यंग्यकार की व्यापक जीवन परिवेश की समझ पाठकों के समझ
से अधिक होनी चाहिए जो इस संग्रह में कहीं नजर नहीं आती। आज बच्चा - बच्चा
जानता है कि नेता ही भ्रष्टïाचार के शलाका पुरूष हैं। पुलिस और अपराधी चोर -
चोर मौसेरे भाई है। अधिकारी गबन करने में व्यस्त हैं। नेता सरकार से भले
ही फिफ्टी परसेंट में बात तय होगी, बांध पुन: बनवाने आर्डर आयेगा। व्यापारी
लोग मिलावट का गर्भधारण करवाने की कला में कब से पारंगत हो चुके हैं।
पुलिस वाले थाने में सद्भावना पूर्वक सामूहिक बलात्कार कार्यक्रम संपन्न
करके ही जनसेवा का कर्तव्य निभाते हैं। अधिकारी भंग के साथ घूंस भी मिलाकर
खाने में माहिर हो गये है। मूर्ख जब तक जिन्दा है बुद्धिमान भूखा नहीं मर
सकता आदि ये सारे कृत्य आज आम हैं। इसमें रहस्य अथवा गूढ़ार्थ के आवरण का अब
निशा भी बाकी नहीं रह गया है। पाठक के जानने के लिए यहाँ कुछ भी नया नहीं
हैगूढ़ यही रहा। फिर भी, इस संग्रह में इन्हीं वाक्यों की बार - बार
पुनरावृत्ति होने से पाठक के अंदर बौद्धिक आक्रोश के स्थान पर ऊब ही पैदा
होती है। आलोच्य संग्रह की रचनाओं में नैतिक पतन, की स्वीकारोक्ति स्वत:
सहज और गरिमापूर्ण ढंग से हुई अत: किसी मिथ्याचार, किसी पाखण्ड अथवा किसी
विसंगति से पर्दाफाश जैसा कहीं कोई दृष्य नहीं बनता।
आजकल कविताओं में सपाटबयानी का चलन है। इस संग्रह में भी इसी रोग का
संक्रमण फैला हुआ प्रतीत होता है। संग्रह में यद्यपि अनेक गिरावटों पर
व्यंग्य संधान हुआ है पर तीर लक्ष्य भेदन से चूक गया है। रचनाएँ पाठकों की
संवेदनाओं को जगाती जरूर है पर उन्हें उद्ववेलित नहीं कर पाती। फलत: किसी
भी रचना में न तो कहीं विचारों की गहनता है और न करूणा की गहराई है।
जिस प्रकार शब्द और अर्थ के चमत्कार से अलंकार की सर्जना होती है उसी
प्रकार शब्द और अर्थ के ही व्यंग्जनात्मक भायाभिव्यक्ति से, व्यंग्य का
निष्पत्ति होती है। मात्र वक्रोक्ति कथ्सन से ही सार्थक व्यंग्य की सर्जना
संभव नहीं है।
संग्रह में कुछ स्थानों पर भ्रष्ट्राचार रूपी सांड की पूंछ पकड़ लेने से
मोक्ष की प्राप्ति होती है ईमानदारी जैसी जानलेवा बीमारी के बहकावें में
कभी न आइयेगा तथा मिल बाँटकर खाना ही सच्चा समाजवाद है जैसे सूत्र वाक्यों
की भी सर्जना हुई है। इन स्थलों पर व्यंग्य का पैनापन उजागर हुआ है।
इस संग्रह की रचनाओं में व्याकरण की लड़खड़ाहट भी है। विराम चिन्हों, उद्धहरण
चिन्हों आदि की सर्वत्र उपेक्षा की गई है, जिससे पाठक को अर्थ व भाव ग्रहण
करने में कठिनाई होती है। रचनाएँ अखबार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर
लिखी गई प्रतीत होती है, जिससे न कहीं हास्य है और न कहीं व्यंग्य, केवल
सपाट बयानी है, और कथ्य की एक रूपता है।
व्याख्याता, कन्हारपुरी, जिला - राजनांदगांव (छग)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें