शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

संभावनाओं की तलाशा में

(कुबेर संभावनाओं के कवि हैं।)(कुबेर सिंह साहू की कविता संग्रह ’’भूखमापी यंत्र’’ की भूमिका से।)

वर्तमान दौर में राजनीति ही सब कुछ है। देश और समाज इससे पूर्णतः प्रभावित है, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। बदलते नैतिक मूल्य एवं सामाजिक सरोकार, सब पर राजनीति हावी है, चाहे वह भ्रष्टाचार हो, वोट की राजनीति हो, चाहे भूमण्डलीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नीति निर्धारण, यही कारण है कि आज राजनेताओं से लोगों का मोहभंग हो चुका है। इसके विपरीत साहित्यकारों के प्रति उनका विश्वास आज भी जीवित है। साहित्य में भी ’काव्य लेखन’ का अपना अलग स्थान है। आज यह कहना कि कविता की जरूरत नहीं है या कविता मर गई है, एक निरर्थक प्रलाप है। कविता कभी मर भी कैसे सकती है? जब तक इंसान में प्रेम, शांति, सहयोग और बंधुत्व का भाव कायम रहेगा। कविता एक ओर अपने देश, काल, परिवेश से स्वयं प्रभावित होती है तो दूसरी ओर इनमें इन्हें प्रभावित करने का साहस भी है। श्री कुबेर सिंह साहू का प्रथम प्रयास ’भूखमापी यंत्र’ इस तथ्य का गवाह है।

मैंने इस संग्रह में संकलित सभी 63 कविताओं का कई बार पठन किया है। प्रत्येक कविता के एक-एक शब्द से होकर गुजरा है और कह सकता हूँ कि ये कविताएँ कवि के जीवन-अनुभव की कविताएँ हैं। ’जाके पैर न फटी बिंवाई, सो का जाने पीर पराई’ की कहावत के अनुरूप ये कविताएँ भोगे यथार्थ की सच्ची अभिव्यक्ति हैं जो अन्याय, भ्रष्टाचार एवं शोषण के खिलाफ विद्रोह एवं संघर्ष के साथ ही आम आदमी के दुख दर्द एवं उस पर हो रहे जुल्म की पहचान कराने वाली है। दूसरी ओर ढोंग एवं पाखंड से पूर्ण समाजवाद, पूंजीवाद पर तीखे व्यंग्य भी है। ’सड़क शिराएँ’ की पंक्तियाँ इसके सबूत हैं -

इन्सानी मूल्यों की सीड़ियाँ चढ़कर,
टांगे जा रहे हैं,
समाजवाद की तख्तियाँ,
हस्ताक्षर हैं जिस पर पूंजीवाद के।

संग्रह की कविताएँ आम आदमी के शोषण से लेकर मध्यवर्गीय जीवन की पीड़ा, हताशा, संत्राश, कुंठा एवं पूंजीवादी व्यवस्था के शोषणचक्र को भलीभांति उजागर करती हैं। सर्वहारा की पीड़ा को ’अंत में’ व्यंग्यात्मक स्वरों में यह कहना कि -

हँसने रोने की मनाही है,
अँधों, बहरों और गूँगों की गवाही है।’

तो दूसरी ओर सुबह से शाम अपनी जिंदगी तमाम करने वाले मध्यवर्ग की पीड़ा ’त्रिभुज’  में दिखाई पड़ती है -

’जिसके तीनों बिंदुओं पर है,
क्रमशः घर, आॅफिस और बाजार।’

समाजवाद के नाम पर देश की जनता को हमेशा बेवकूफ बनाने की साजिश का पर्दाफाश ’समाजवादी डंडा’ में दृष्टव्य है -

एक थका हुआ झण्डा,
जिसके बीचों बीच घूम रहा है एक पहिया,
समाजवाद का।

आज हर आदमी भूखा है। कोई धन का, तो कोई पद का; कोई कीर्ति का तो कोई रोटी का। ’भूखमापी यंत्र’ में यथा नाम तथा गुण, इस दुनिया में रहने वाले भूखे-नंगे लोगों के अविराम शोषण की प्रक्रिया पर धारदार व्यंग्य नीहित है। अपने समय की चुनौतीपूर्ण भूमिका के निर्वहन हेतु कविता का कथ्य और शिल्प कितना परिवर्तित हो जाता है, यह ’भूखमापी यंत्र’ में देखा जा सकता है। श्री कुबेर सिंह साहू प्रारंभ से ही संभावनाओं की तलाश करते नजर आते हैं, चाहे वह ’आम आदम’ में हो या ’काठ का आदमी’ में। वे संभावनाओं के कवि हैं। समकालीन हिंदी कविता ऐसी ही कविताओं से समृध्द हुई है। ’जिम्मेदार कौन’ की इन पं्रक्तियों में कवि का अभीष्ट समाहित है -

दुनिया का दुख इतना बड़ा नहीं कि हरा न जा सके,
दुनिया का पेट इतना बड़ा नहीं कि भरा न जा सके।

निसंदेह यह कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं है कि कवि ने प्रगतिशीलता का छद्म आवरण नहीं ओढ़ा है। संग्रह की कविताएँ प्रगतिशील चेतना से संपन्न जनवादी कविताएँ हैं। कवि का यह तर्क कि यहाँ ’सब कुछ चलता है’ के नाम पर कब तक ’चुप’ रहोगे, तो दूसरी ओर शोषण के जंग को जीतने के लिए शक्तिशाली बनने का आह्वान किया है जो जन की एकता व संगठन पर निर्भर है।

आशा है इस संग्रह का पाठक वर्ग में स्वागत होगा। अशेष शुभकामनाओं के साथ.......

दिनांक: 30 मार्च, 2003
                          डाॅ. नरेश कुमार वर्मा
                            अध्यक्ष, हिंदी विभाग
                  शास. दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगाँव

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