सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

सोचें

आओ,सोचें!
कि दूल्हा केवल दूल्हा है
या कुछ और ?
कि दुल्हन केवल दुल्हन है
या कुछ और ?
कि ब्याह संबंधों की शुरूआत है
या कुछ और ?
और पुनर्विचार करें ,कि-
हम सभ्य समाज के पुर्जे हैं ?

आओ, समझें
यदि नैतिकता बाकी है, तो पूरी ईमानदारी से
कि दुल्हन के चेहरे पर उतर आया दहशत
और आंखों में समाया हुआ
जलाये जाने की आशंका का दर्द
जो लाज और मर्यादा के मुखौटों में
               छिपा लिया गया है
कहीं ससुर की कुटिल मुस्कानों
और भावी पति की ललचाई आंखों की
                खौफनाक क्रिया की
बेबस प्रतिक्रिया तो नहीं ?

आओ, पढ़ें
बेटी को पराये हाथों में सौपने से पहले
उसके मासूम चेहरे पर कुछ लिखा है ’?’
परंपरागत, चिरपरिचित
चिंताओं, आशंकाओं की लिपि में
और आश्वश्त हो लें,कि-
हम अपना बोझ कम नहीं कर रहे हैं
बेटी का धर बसा रहे हैं।
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