प्रसिद्ध प्रगतिशील समालोचक डाॅ. गोरे लाल चंदेल की कुबेर की चर्चित (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) ’भोलापुर के कहानी’ की यह समीक्षा ’विचार वीथी’ नवंबर 10 - जनवरी11 में प्रकाशित हुआ था।
लोक की कहानी
(’भोलापुर के कहानी’ प्रथम संस्करण की समीक्षा; विचार वीथ्ी, नव्रबर 10 - जनवरी 11)
डाॅ. गोरे लाल चंदेल
आंचलिक भाषा पर कहानी लिखने की हमारी परंपरा बहुत लंबी है। इंशा अल्ला खाँ की ’रानी केतकी की कहानी’ यों तो हिन्दी खड़ी बोली की कहानी मानी जाती है पर उस कहानी में आंचलिकता बोध स्पष्ट दिखाई देता है। रेणु की ’परती परिकथा’ बिहार की लोक बोली के रस से सराबोर दिखाई देती है। उनकी कहानियों में भी इस आंचलिक रंग को आसानी से देखा जा सकता है। बहुत से हिन्दी कहानियों में भी आंचलिक भाषा के प्रयोग से कहानी को अधिक प्रभावशाली बनाया गया है। किन्तु यह भी सही है कि आंचलिकता के नाम पर बहुत सतही कहानियाँ भी लिखी गई है। और उन सतही रचनाओं के बलबूते पर आंचलिक लेखक का तमगा लगाकर सामाजिक और राजनैतिक लाभ उठाने वाले तथाकथित रचनाकारों की भी कमी नहीं है। ऐसे रचनाकार आंचलिकता को जीते नहीं केवल भुनाते हैं। जब तक आंचलिक भाषा की रचनाओं में अंचल के लोक जीवन की संवेदनाओं को पकड़ने, उनके भीतर की ऊर्जा और जीवनी शक्ति को तलाशने तथा लोक की संघर्षशील चेतना को पकड़ने में रचनाकार कामयाब नहीं होंगे तब तक आंचलिक रचनायें केवल सतही या मस्ती की रचनायें ही हो सकती हैं। उनमें रचनात्मक गहराई का अभाव दिखाई देगा। ऐसी रचनाओं का आंचलिक साहित्य के विकास में कोई योगदान नहीं होता। रचना का समाज शास्त्र विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ दिखायी देगा।
हम छत्तीसगढ़ी पर लिखी आंचलिक रचनाओं की परंपरा की ओर देखें तो यह परंपरा खींच-तानकर धर्मदास तक जाती है। वैसे धर्मदास की रचनाओं को विशुद्ध छत्तीसगढ़ी कहने पर भी प्रश्न उठाये जा सकते हैं किन्तु ध्र्मदास से लेकर सन 2000 तक छत्तीसगढ़ी में जितनी रचनाएँ लिखी गई उससे कई गुना अधिक 2000 से 2010 के बीच लिखी गई। स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ी राज्य के गठन के बाद छत्तीसगढ़ी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई, इस बाढ़ से छत्तीसगढ़ी की संस्कृति, संस्कृति का आधार, उसका विचार पक्ष, सब कुछ बह जाने के दुख में आज भी आँसू बहाते हुए दिखायी दे सकते हैं। अधिकांश छत्तीसगढ़ी रचनायें ’ठेठरी’ और ’खुरमी’, ’चीला’ और ’फरा’, ’लुगरा’ और ’पोलखा’, ’पंछा’ और ’पटका’ में सिमटकर रह गयी। लोक जीवन की ऐतिहासिक संघर्षशीलता को पहचानने में नाकाम रही।
कुबेर छत्तीसगढ़ी के एक संभावनाशील कथाकार हैं। कथाकार की दृष्टि न केवल लोक की ऐतिहासिक संघर्षशीलता को पहचानती है वरन् उसके भीतर के जीवन मूल्यों को तलाशती भी है। उनकी कहानियाँ सांस्कृतिक मूल्यों की ऊपरी कलेवर पर ही नहीं टिकती वरन् संस्कृति को व्यापक समाजिक जीवन के भीतर से देखती है। यदि कुबेर गाँधीवादी आदर्श के आग्रह से मुक्त होकर, कठोर सामाजिक यथार्थ से रूबरू होकर, लोक मूल्यों को पकड़कर कहानी लिखे तो एक मुकम्मल कहानीकार के रूप में उनका विकास हो सकता है। हालाकि ’’भोलापुर के कहानी’’ संग्रह की कुछ कहानियों में इस आदर्श से बाहर निकलने की छटपटाहट उनमें स्पष्ट दिखाई देती है जिससे उनमें अच्छे कहानीकार की संभावनाएँ दिखाई देती है। ’घट का चैंका कर उजियारा’ ,’चढ़ोŸारी के रहस’, ’पटवारी साहब परदेसिया बन गे’, ’अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ’, ’मरहा राम के जीव’ कहानियों में कुबेर के आदर्श से बाहर निकलने की कश्मकश को देखा जा सकता है और यथार्थ की ठोस जमीन पर डरते झिझकते हुए नहीं वरन् पूर्ण आत्मविश्वास के साथ, मजबूती से कदम रखते हैं। धर्म और धार्मिक कार्यों के भीतर छुपे हुए यथार्थ को पकड़ने में उनकी दृष्टि कहीं चूकती नहीं, चाहे कबीर पंथी संत का यथार्थ हो अथवा ’पेटला महराज’ या बनारस का कथावाचक हो। हमारी सामाजिकता को रौंधते हुए अर्थ तंत्र की धड़कन पहचानने में कुबेर कोई गलती नहीं करते। आम आदमी के धार्मिक शोषण के रहस्य को भी वे समझ जाते हैं और संत या कथावाचक को हास्यास्पद बना देते हैं। नौकरशाही के चरित्र को ’पटवारी’ और ’बबुआ’ के माध्यम से, कड़ुए यथार्थ के भीतर से देखते हैं। मंगलू राम के विरोध की चेतना शोषित-पीड़ित व्यक्ति की संघर्षशील चेतना का ही प्रतिफलन है। रतनू राम को पटवारी परेशान करता है। वह कोई और नहीं, उनके अपने ही व्यक्ति है, छŸाीसगढ़िया है। नौकरशाह के चरित्र को परखने में कुबेर कहीं चूकते नहीं।
कुबेर के यहाँ छत्तीसगढ़ी का गाँव है; एक समूचा गाँव, जहाँ गाँव की अच्छाई भी है और बुराई भी; और हैं दोनांे को जीते हुए लोग। गाँव में अंधविश्वास का एक मजबूत जाल होता है जिसमें हर आदमी फंसा होता है और जाने अनजाने उसे जीवन का हिस्सा बना लेते हैं। यह अंधविश्वास कुछ चालाक लोगों के प्रतिशोध का अस्त्र भी होता है और कुछ लोगों के जीवन यापन का साधन भी। ’’पेटला महराज के बाप ह तरिया के कुंडली बनाथे’’(राजा तरिया)। वे यह भी कहते हैं - ’’जजमान मोर बात ला धियान दे के सुनिहव। दुनों तरिया मन के बिहाव जब तक नइ होही, पानी कभू नइ माड़य।’’ (राजा तरिया)। तालाब की गाँव वालों द्वारा बेटी वाले और बेटा वाले, दो ग्रुप में बँाटकर ’लद्दी’ निकालकर सफाई की जाती है। पानी भरने का मुख्य कारण यह है जिस ओर संकेत करके कुबेर अंधविश्वास पर प्रहार करते हैं। छŸाीसगढ़ के हर गाँव में पेटला महराज और उसकी पीढ़ी को देखा जा सकता है। पेटला महराज का दूसरा रुप कबीर पंथी संत और तीसरा रुप कथावाचक और बरन (चढ़ौतरी के रहस) में देखा जा सकता है। वास्तव में इनकी पूरी जमात होती है जो गाँव के लोगों का सांस्कृतिक शोषण करती है और अपनी थैली भरती है। लोक जीवन धार्मिक कार्यों के प्रति बहुत संवेदनशील होती है और उसी संवेदनशीलता को शोषण का आधार बनाया जाता है। एक दूसरे तरह के लोग ’संपत’ और ’मुसवा’ जैसे होते हैं (लछनी काकी) जो अंधविश्वास को प्रतिशोध का हथियार बनाते हैं। घना मंडल के सामाजिक जीवन का गाँव के लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव को समाप्त कर अपना अस्तित्व और कमाई को बदस्तूर जारी रखने के लिय,े घना मंडल को बदनाम करने के लिये, षडयंत्रपूर्वक इसी अंधविश्वास का सहारा लिया जाता है और संपत, मुसवा और नानुक सुंदरू को साम, दाम, दण्ड और भेद से इस बात के लिये राजी कर लेते हैं कि भरी पंचायत में वह लछनी पर टोनही होने का आरोप लगाये और उसकी पत्नी पर टोना करने का दोष मढ़े। किन्तु उनका खेल गावँ के ही, मेडिकल कालेज का छात्र रघ्घू बिगाड़ देता है और पंचायत में जाँच रिपोर्ट पढ़कर बता देता है कि फुलबासन को एड्स है। कुबेर अंध-दृष्टि और वैज्ञानिक-दृृष्टि की द्वन्द्वात्मकता दिखाकर समाज में अंधविश्वास के विरुद्ध चेतना जागृत करते हैं।
कथाकार की सहज दृष्टि में बड़ी सजगता हर कहानी में दिखाई देती है इसलिये समाज विरोधी तत्वों परंपराओं और रिवाजों का वे प्रतिरोध करते हैं। उनका यह प्रतिरोध रचनात्मक प्रतिरोध है; प्रतिरोध के लिये प्रतिरोध नहीं है- चाहे वह संपत और मुसवा का प्रतिरोध हो या नंदगहिन द्वारा कबीर पंथी संत का व्यंग्यात्मक प्रतिरोध हो (घट का चैंका कर उजियारा) अथवा मरहा राम का प्रतिरोध हो (मरहा राम के जीव) या फिर मंगलू का प्रतिरोध हो (अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ)। इन प्रतिरोधों का संग्रह ही कहानी में एक सामाजिक चरित्र बनता है, जो चेतना के समाजशास्त्र को प्रभावित करता है और चेतना के विकास की दिशा तय करता है। प्रतिरोध का यह स्वर कभी दबा हुआ रहता है तो कभी मुखर। मजे की बात यह है कि मुखर स्वर रघ्घू, जगत आदि नई पीढ़ी के लोगों में दिखाई देता हैं (सरपंच कका, लछनी काकी)। कहानीकार की दृष्टि नई पीढ़ी के भटकाव को भी पकड़ने में सफल दिखाई देती है। (डेरहा बबा) नई पीढ़ी का यह भटकाव न केवल लोक जीवन को अशांत करता है वरन् उनके अपने जीवन में भी अंधेरे का विस्तार करता है। 21वीं सदी का उत्सव (डेरहा बबा) नई पीढ़ी के सांस्कृतिक भटकाव को रेखांकित करता है। यह बात अपनी परंपरा और इतिहास से कटी हुई पीढ़ी की त्रासदी की ओर इशारा करती है और कहानीकार का यह इशारा हमारी समूची सांस्कृतिक विरासत पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। किन्तु मंगलू के प्रतिरोध की चेतना एक दूसरी तरह की चेतना है (अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ)। वह अपनी प्रतिरोध की चेतना को अपने अफसर के प्रिय विदेशी पौधे पर कुल्हाड़ी चलाकर व्यक्त करता है। मरहा राम की चेतना फेन्टेसी में फंसी होने के बाद भी मुकम्मल प्रतिरोधी चेतना के रूप में दिखई देती है (मरहा राम के जीव)। नंदगहिन की विरोधी चेतना बड़ी मासूमियत और विनम्रता से भरी हुई चेतना है। ’’बने कहिथस साहेब। हम मूरख अज्ञानी। दारू-मंद के मरम ल का जानबोन। जानतेन त अइसन अपराध काबर करतेन। आप मन गुरू हव, गियानी-धियानी हव, तउन पायके जानथव।’’ (घट का चैंका कर उजियारा)। मासूमियत और विनम्रता में लिपटी यह चेतना तिलमिला देने वाली है। कहानी ने विरोध की चेतना के मूक रूप को भी दिखाया है। रतनू के मूक विरोध में भी बड़ी ताकत दिखार्द देती है, चाहे वह ’पटवारी साहेब परदेसिया बन गे’ में पटवारी के प्रति हो या ’साला छŸाीसगढ़िया’ में दुकानदार के प्रति। मूक विरोध होकर भी यह प्रभावशाली ढंग से उभर कर सामने आता है। ’मरहा राम के जीव’ कहानी में मरहा राम के मिथ और फेन्टेसी में जाने के पूर्व के चरित्र को भी विरोध की चेतना के रूप में देखा जा सकता है।
’भोलापुर के कहानी’ रिश्तों की सामूहिकता में बंधी हुई कहानियों का भी संग्रह है। समूह की चेतना लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है; जहाँ हर आदमी रिश्तों की डोर में बंधा हुआ दिखाई देता है। गाँव के विरोधी तत्वों के बीच भी इस बंधन में कोई झोल दिखाई नहीं देता, चाहे सुकारो दाई का नंदगहिन से रिश्तों का बंधन हो या उनकी अपनी बहु से। अछूत समझे जाने के बाद भी पेटला महराज से डेरहा बबा का रिश्ता, रघ्घू और जगत का सरपंच कका, मुसवा, संपत और नानुक के रिश्तों का बंधन; रतनू उसका बेटा और उसकी पत्नी का बंधन; नंदगहिन का गुरुदेव संत साहेब से रिश्ता, न जाने कितने-कितने रिश्तों का बंधन। न जातिवाद की बाधा न सम्प्रदायवाद की। ऊँच की न नीच की। वहाँ केवल सामूहिकता की अविरल धारा है। बूँदों का विलय ही धारा का अस्तित्व है और यही लोक जीवन का भी अस्तित्च है। मरहा राम का संघर्ष और राजा तरिया कहानियों में सामूहिकता के दो अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। एक में समूह की शक्ति उत्सव की पृष्ठभूमि में दिखाई देती है तो दूसरी में यह प्रतिरोध की शक्ति के रूप में दिखाई देती हैं। दोनों लोक की सामूहिकता के दो अलग-अलग रंग हैं।
साहित्य में मिथ का उपयोग करते समय रचनाकार का सावधान रहना आवश्यक है। मिथ हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। उसके अपने ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व हैं। किन्तु कालक्रम से उसकी व्यंजना को परिवर्तित करना आवश्यक होता है। ’मरहा राम के जीव’ में कुबेर ने यमराज, यमलोक, यमदूत तथा श्री हरि या भगवान और भगवान के लोक के मिथ पर जो फंतासी रचते हैं वह रोेचक होने के साथ ही साथ नकारवादी न होकर सकारवादी है। भवसागर और वैतरणी जैसे मिथों का यमदूत द्वारा व्याख्या हमारे अपने सामाजिक चेतना को विकसित कर मिथ को एक अलग संदर्भ में देखने-समझने की दृष्टि देती है। मरहा राम प्रतिरोधी शक्तियों से अकेला संघर्ष करते हुए मारा जाता है; बल्कि उनकी हत्या की जाती है। पूंज्ीवादी शोषक व्यवस्था में कई मरहा रामों की हत्याएँ हो चुकी है। हिंसा, हत्या, आतंक यह सब तो इस व्यवस्था का चरित्र ही है। ’मरहा राम के संघर्ष’ कहानी के प्रारंभ में अपनी जमीन न छोड़ने का मूक संघर्ष है किन्तु कहानी के अंतिम अंशों में यह संघर्ष प्रबल विरोध में रूपान्तरित होता है। कहानीकार ने शायद मूक विरोध को प्रबल मुखर विरोध में बदलने के लिये ही मिथ और फंतासी का उपयोग किया है। यह प्रयोग कहानी को बहुत ऊपर उठा देता है। यदि कहानी के ऐसे अंशों को, यथा - ’’छत्तीसगढ़िया के निर्णय भगवान हा करही’’, ’’लदलद लदलद कांपना’’ जैसी बातों को विलोपित कर दिया जाय तो यह और भी प्रभावशाली कहानी बन सकती थी। मरहा राम के संघर्ष को हाशिये पर रखकर भगवान के आदेश से संघर्ष की परिकल्पना कहानी को नाटकीय ढंग से यथार्थ से दूर हटा देती है जबकि कहानी का कलेवर यथार्थवादी जमीन पर विकसित होती है। छत्तीसगढ़िया लोगों के भोलेपन का फायदा चालाक लोग उठाते हैं, यह सत्य है। उनकी चालाकी और उनकी बाहुबलियों से छत्तीसगढ़ियों के भयभीत होने में भी यथार्थ की झलक है पर छत्तीसगढ़ के लोग कमजोर नहीं हैं, वह हर परिस्थिति में जीने की क्षमता रखता है, उनकी इस क्षमता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये। यह क्षमता मरहा राम में भी है और रतनू में भी और डेरहा बबा में भी है। यही क्षमता उनकी ताकत है। फिर भी यह कहानी शक्तिशाली शोषकों के विरुद्ध जंग के एलान की कहनी बन जाती है और लोक में प्रतिरोध की चेतना का विकास करती है।
कहानी के शिल्प पर विचार किया जाय तो कहानी बुनने की कला तो कुबेर में है ही कथानक का विकास भी इस तरह करते हैं कि कथाक्रम में कहीं व्यतिरेक दिखाई नहीं देता। लोक-भाषाओं में यों ही बड़ी मिठास होती है। लयात्मकता तो लोक-भाषा का प्राण ही है पर यह सब तभी संभव है जब लोक की शैली में इसका प्रयोग हो। यदि लोक शैली को नजरअंदाज कर लोक-भाषा का प्रयोग किया जाय तो भाषा बोझिल हो जाती है और स्वभाविकता समाप्त हो जाती है। कुबेर ने ठेठ लोक शैली में कहानी लिखी है। लोक मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा लोक व्यवहार के शब्दों का कुबेर ने ऐसा प्रयोग किया है कि कहानी का शिल्प-सौंदर्य प्रभावशाली बनता ही है, पाठक को डुबा भी देता है। कुबेर तो यमदूत, यमराज और भगवान से भी छत्तीसगढ़ी में बात करवा देते हैं। विषयानुकूल छत्तीसगढ़ी के शब्दों का चयन आसान काम नहीं है, उसके लिये अध्ययन से अधिक अनुभव की आवश्यकता पड़ती है। कुबेर के पास भाषा का ठेठ अनुभव है, इसीलिये बहुत प्रभावशाली भाषा का उपयोग करने में वे सफल होते हैं।
कुबेर की कहानियों में अधिकांश पात्र प्रतिनिधि पात्र बनते-बनते रह जाते हैं। एक अजीब तरह के गाांधियन हृदय परिवर्तन का भी कहानीकार सहारा लेते हैं। गाँधी-युग के बाद हिन्दी कहानी की जमीन गाँधियन आदर्श से हट गई है और ठोस यथार्थ की जमीन पर हिन्दी कहानी फल-फूल रही है। ऐसे समय में गाँधीवादी हल देना कहानीकार की भावुकता ही मानी जा सकती है। जब-जब कुबेर गाँधीवादी भावुकता से बाहर निकलते हैं, कहानी बहुत प्रभावशाली बन जाती है - चाहे ’घट का चैंका कर उजियारा ’ हो, ’सुकवारो दाई’ हो ’पटवारी साहेब परदेसिया बन गे’ हो ’अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ’ हो या ’मरहा राम के जीव’ हो। इन कहानियों में सामाजिक विसंगतियों का यथार्थपरक रूप सामने आता है। कुबेर में कहानी बुनने की बहुत अच्छी कला है, अच्छी भाषा है और वे विषयवस्तु का चुनाव करने में सक्षम हैं। यदि भावना के प्रवाह में बहने के प्रति सचेत अथवा सजग रहें तों वे बहुत अच्छी आंचलिक कहानियाँ दे सकते हैं। हिन्दी साहित्य में अच्छी आँचलिक कहानियों की कमी कुबेर की कहानियों से पूरी हो सकती है।
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दाऊ चैंरा’, खैरागढ
जिला - राजनांदगाँव (छ. ग.)
मो. - 9425560759
’विचार वीथी’ (अंक नवंबर 10 - जनवरी11) से साभार
कुबेर
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