लोक-प्रतिकार
बापू ने कहा है - लोक निरक्षर हो सकता है परंतु अज्ञानी और मूर्ख नहीं। लोक का ज्ञान उनकी परंपराओं और अनुभवों से अर्जित ज्ञान है। लोक के इसी ज्ञान पर उत्पादन के तमाम साधन आश्रित हैं जो समाज की सभ्यता और विकास के मूल कारक हैं। लोक के इसी ज्ञान के सत्व से समस्त लोककलाएँ पुष्पित और पल्लवित हुई हैं। इसके बावजूद लोक के इस विराट और उत्पादक ज्ञान को सदैव दोयम दर्जे का साबित करने का और अनुत्पादक और कल्पित शास्त्रीय ज्ञान को धर्म और अध्यात्म का आवरण चढ़ाकर इसे लोकज्ञान पर वरीयता दिये जाने का कुत्सित प्रयास होता रहा है। इस तरह लोकज्ञान को हीन और दोयम दर्जे का साबितकर लोकमानस में हीनता का बीजारोपण किया गया जिससे उनका हर प्रकार से शोषण किया जा सके। लोक इसे भी अच्छी तरह समझता है और अपने ढंग से इसका प्रतिकार भी करता रहा है। लोक प्रतिकार के इस रूप को हम उसके विभिन्न कलामाध्यमों में देख सकते हैं। छत्तीसगढ में लोकनाट्य नाचा की परंपरा इसी प्रतिकार का प्रस्तुतिकरण है।
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