मंगलवार, 2 मई 2017

आलेख

’’जनप्रतिनिधित्व अनुपात: आबादी के आधार पर न हो इजाफा’’

आजादी के बाद देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ी है परंतु जनप्रतिनियों की संख्या उतनी ही बनी हुई है। अब तक की सरकारों ने इस पर कोई विचार नहीं किया। दैनिक ’नई दुनिया’ 02 मई 2017 के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर ए. सूर्यप्रकाश का एक लेख छपा है जिसका शीर्षक है - ’’जनप्रतिनिधित्व अनुपात: आबादी के आधार पर न हो इजाफा’’। लेख में कहा गया है कि - ’’संविधान के अनुच्छेद 81 (2) (ए) के अनुसार लोक सभा में हर राज्य के लिए सीटों का अबंटन जनगणना के अनुपात से होता है। वहीं अनुच्छेद 82 के तहत संसद प्रत्येक दशकीय जनगणना के बाद हरेक राज्य में सीटों के परिसीमन के लिए किसी निकाय का गठन कर सकती है।’’ 

पर इसमें कुछ दिक्कते हैं जिसे लेख स्पष्ट किया गया है - आज की स्थिति में जनसंख्या के अनुपात में जनप्रतिनिधयों की संख्या नहीं तय की जा सकती। ऐसा करना उन दक्षिणी राज्यों के लिए हानिकारक होगा जहाँ साक्षरता दर अधिक है और जिन्होंने परिवार नियोजन कार्यक्रम को ईमानदारी से लागू करके अपने राज्य की जनसंख्या को अधिक बढ़ने नहीं दिया। यह अच्छे काम के लिए दंडित करने जैसा होगा। दूसरी ओर उत्तरी राज्य हैं जहाँ साक्षरता दर अपेक्षाकृत कम है और परिवार नियोजन के प्रति उपेक्षित रवैये के कारण वहाँ की जनसंख्या में तेजी से बढौतरी हुई है। दक्षिणी राज्यों के मुकाबले इन राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर तीन से चार गुना अधिक रही है। राष्ट्रीय हित के मुद्दों की उपेक्षा करनेवाले इन राज्यों के लिए यह किसी पुरस्कार से कम नहीं हागा। अतः ऐसी स्थिति में जाहिर है, जनप्रतिनिधित्व अनुपात को आबादी के आधार पर बढ़ाना न्यायसंगत नहीं होगा।

जहाँ तक मैं समझता हूँ - 2003 में अटलविहारी बाजपेयी सरकार ने इस पर विचार करने का मन बनाया था। परंतु इस सरकार ने उल्टा निर्णय लेते हुए जनप्रतिनिधयों की संख्या बढ़ाने का विचार 2026 तक के लिए मुल्तबी कर दिया। इसका अर्थ है कि 2031 की दशकीय जनगणना के पहले जनप्रतिनिधयों की संख्या बढ़ाना अब संभव नहीं है। यह एक कूटनीतिक प्रपंच है जिसे समझा जाना चाहिए। वह यह कि - जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ने का अर्थ है संसद में गैर सवर्णों की संख्या में इजाफा होना। इससे सरकार का नेत्त्व गैर सवर्णों के हाथों में चले जाने की संभावना बनती है। अब तक देश में सवर्णों के नेतृत्ववाली सरकारें रही हैं। सवर्ण किसी भी हालत में सत्ता से दूर होना नहीं चाहेंगे। ऐसे में वे कदापि नहीं चाहेंगे कि संसद और विधान सभाओं में जनप्रतिनिधयों की संख्या बढ़े। 
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