लघु व्यंग्य
ये क्या कम है
मरहा राम अपने साथियों के साथ बीते दिनों की नैतिकता की डीगें मार रहा था। कह रहा था - ’’भाइयों! अब तो अंधेर ही अंधेर है - जिधर भी देख लो। भ्रष्टाचार देश को खोखला किये जा रहा है। ये देखो, एक सौ साल पुरानी सरकारी इमारत। भूरी चींटी के घुसने लायक भी कोई दरार हो इसमें, तो बता दे ढूँढकर, माई का लाल कोई हो तो। मजबूती से अब भी कैसे खड़ी है।’’
मरहा राम की इन ढींगों को पास ही बैठा मंत्री सुन रहा था। जब रहा नहीं गया तो मरहा राम को उसने ललकारा - ’’ओये! मरहा राम के बच्चे। और ये बिल्डिंग तुझे नहीं दिखती बे। एक ... साल्..से जादा हो गया है कि नहीं। खड़ी है कि नहीं अब भी? साला! बात करता है।’’
’एक ... साल्......से’, पर जिस तरीके से जोर देकर बोला गया था, उसी का असर होगा; बात मरहा राम के मर्म को छू गई। उसने हाथ जोड़कर कहा - ’हुजूर! ठीक कहते हैं आप, वरना यहाँ कई इमारतें तो बनते ही गायब हो जाती है।’’
000kuber000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें