बुधवार, 3 मई 2017

भाषा विचार - 2

भाषा और संस्कृति

भाषा के साथ उसे व्यवहार में लानेवाले समाज की संस्कृति, परंपराएँ, भावनाएँ और आस्थाएँ भी जुड़ी होती हैं। मातृभाषा सीखने की प्रक्रिया में हम इन्हें भी अनायास सीखते चले जाते हैं। शैक्षणिक संस्थाओं में यदि हम कोई विदेशी भाषा सीखते हैं तो हम केवल उस भाषा को सीखते हैं। संभव है कि उस भाषा को हम बहुत शुद्धता के साथ बोल और लिख पाते हों। यहाँ तक कि जिस समाज में वह भाषा मातृभाषा के रूप में बोली जाती हो उस समाज के लोगों से भी अधिक शुद्ध रूप में। परंतु इस प्रक्रिया में उस भाषा को बोलनेवाले समाज की संस्कृति, परंपराओं, भावनाओं, और आस्थाओं को हम नहीं सीख सकते हैं। इसके लिए हमें उस समाज के साथ घुलना-मिलना होगा। इसे मैं एक आपबीती प्रसंग के द्वारा स्पष्ट करना चाहूँगा।

राजस्थान का एक ब्राह्मण परिवार यहाँ (राजनांदगाँव में) आकर बस गया है। जाहिर है, छत्तीसगढ़ी उस परिवार की मातृभाषा नहीं है। उस परिवार के मुखिया महोदय से मेरी अच्छी जान-पहचान है। शहर में जहाँ उनका घर है, उस कालोनी में छत्तीसगढ़ी बोलनेवाले नहीं होंगे फिर भी व्यावसायिक सरोकारों की वजह से वे छत्तीसगढ़ी सीख चुके हैं और बहुत शुद्ध और धाराप्रवाह छत्तीसगढ़ी बोल लेते हैं। मिलने पर वे मुझसे हमेशा छत्तीसगढ़ी में ही बातें करते हैं। उसके सुपुत्र के विवाह आशीर्वाद भोज का प्रसंग है। भोजनोपरांत बिदा लेते समय उन्होंने मुझसे पूछा - ’कइसे साहू जी! बने गोहगोहों ले खायेस कि नहीं?’ (छत्तीसगढ़ी में ’गोहगोहों ले खाना’ एक मुहावरा है। बहुत दिनों का भूखा व्यक्ति या बहुत ही निर्धन व्यक्ति जिसने कभी व्यंजनों का स्वाद न लिया हो, व्यंजन पाकर अपनी क्षुधा रोक नहीं पाता है। लोक मर्यादा भूलकर वह भोजन पर टूट पड़ता है। यदि ऐसा व्यक्ति गले तक भोजन ठूँस ले तब इस मुहावरे का प्रयोग किया जाता है, वह भी पीठ पीछे। मित्र द्वारा पूछे गये वाक्य का हिंदी में अनुवाद कुछ इस तरह होगा - ’क्यों साहू जी! गले के आते तक खाये कि नहीं?’) जाहिर है, ऐसा पूछना अतिथि का घोर अपमान करना है। मुझे ध्यान आया, इसके विपरीत यदि वह मेरा अतिथि होता तब? तब भी वह इसी तरह का वाक्य बोल सकता था। तब बिदा लेते वक्त वह शायद इस तरह कहता - ’बढ़िया गोहगोहों ले खवायेस साहू जी, धन्यवाद।’ ऐसा इसलिए हुआ कि वह केवल छत्तीसगढ़ी भाषा को ही सीख पाया है, यहाँ की संस्कृति को नहीं।
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