शुक्रवार, 5 मई 2017

टिप्पणी

कुछ नोट्स

उच्चशिक्षा : कमजोर नींव पर टिकी इमारत  -  अनुराग मोदी

(बया, जनवरी - मार्च 2017, पृ.20-21)

  •  90 प्रतिशत बच्चों के लिए उच्चशिक्षा आजादी के 69 साल बाद भी दिवास्वप्न बनी हुई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 71 वां दौर जनवरी से जून 2014 के अनुसार देश में मात्र 5.7 प्रतिशत लोग ही स्नातक एवं 1.6 प्रतिशत लोग ही स्नातकोत्तर डिग्रीधारक हैं। मतलब कुल आबादी के 7.3 प्रतिशत लोग ही ग्रेजुएट हैं। 
  •  असल में किसी भी वर्ग की लूट का सबसे पहला सूत्र है : उसे वर्ग में अपने अहसास के प्रति हीनभावना भरना; वो किसी भी तरह से हो सकता है; उसके रंग, लिंग, जाति, धर्म। और इसका अगला रूप था - शिक्षा के नाम पर शोषण।  .........  आज इस व्यवस्था में शोषित वर्ग - जिसकी 98 प्रतिशत जनसंख्या आज भी इससे (उच्चशिक्षा) दूर है।
  •  अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा था - अगर हम मछली का कौशल उसकी झाड़ पर चढ़ने की क्षमता से नापेंगे, तो वो अपनी पूरी जिंदगी अपने आपको बेवकूफ मानकर जीने को मजबूर होगी। इस तरह सत्ता संचालकों (इसमें बाजार की ताकत भी शामिल है) ने हमेशा से अपनी व्यवस्था की व्यूहरचना ऐसी की जिसमें आम जनता के ज्ञान को दोयम दर्जे का करार देकर ना सिर्फ उनके श्रम का शोषण किया जा सके, बल्कि उन्हें उचित मानवीय सम्मान से भी महरूम किया जा सके।  

भारतीय उच्चशिक्षा की समस्याएँ और उनका समाधान -  कृष्णा मेनन

(बया, जनवरी - मार्च 2017, पृ.22-23)

हमें भी विश्वविद्यालयों की आजादी के लिए कुछ करना होगा:-

  •  शैक्षणिक बेहतरी के लिए पश्चिम की एक और परंपरा का हम अनुकरण कर सकते हैं। वहाँ पर अगर कोई इन्सान प्रोफेसर बन जाता है तो वह कभी रिटायर नहीं होता, न ही कोई सरकार उसे हटा सकती है।
  •  इमैनुअल कांट को अफलातून के बाद पश्चिम का सबसे बड़ा दार्शनिक माना जाता है। (वहाँ की शिक्षा व्यवस्था को तत्कालीन धर्मसत्ता और राजसत्ता की जकड़ से बचाने के लिए ) उन्होंने ’इंस्टीट्यूशन ट्रांसेंडोटलिज्म’ का एक खयाल सामने लाया। तथा यह कहकर कि हर संस्थान अपना एक आदर्श संविधान बना ले, उस पर चले, और उसके साथ छेड़छाड़ करने की छूट किसी को न रहे, चाहे वह राजा या पादरी ही क्यों न हो। ....................इस सिद्धांत को वहाँ इस कदर मान्यता प्राप्त है कि दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी और इंगलैंड को समझौता करना पड़ा कि वे एक दूसरे के विश्वविद्यालयों पर बम नहीं गिरायेंगे। सो हुआ यह कि राजाओं के महलों पर तो बम गिरे मगर आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज तथा हेडोलबर्ग और लिप्जिग बच गये। जबकि हम आज भी विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर, और किसी संस्थान के निदेशक को नियुक्त करते समय उसकी जाति और धर्म को खंगालते हैं।
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