शुक्रवार, 5 मई 2017

टिप्पणी

कुछ नोट्स

(नयी शिक्षानीति पर बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट - नाॅलेज इकाॅनमी)

................  1992 तक आते-आते भारतीय राजनीति और अर्थनीति में परिवर्तन आ गया और भारत में भूमंडलीकरण की शुरुआत होती है। स्वाभाविक तौर पर भारत के पूंजीपति वर्ग का हित भी अब वैश्विक पूंजी के हित से जुड़ गया था। अकारण नहीं कि जहाँ पहले राधाकृष्णन और कोठारी जैसे शिक्षाविद् शिक्षानीति तय करते थे उनकी जगह मुकेश अंबानी और कुमार मंगलम बिड़ला को विश्व बैंक और डब्ल्यू. टी. ओ. के निर्देश पर शिक्षा की दिशा तय करने की जिम्मेदारी दी जाती है और सन 2000 में बिड़ला-अंबानी की रिपोर्ट पेश की जाती है। इस रिपोर्ट में ’’नाॅलेज इकाॅनमी’’ की बात करते हुए इसके विशाल ग्लोबल बाजार और भारत की संभावनाओं को रेखांकित किया गया है।

अभी तक शिक्षा के क्षेत्र को मुनाफा कमाने की आजादी नहीं थी। इस रिपोर्ट में फीस बढ़ौतरी और फंड जेनरेट करने से आगे बढ़कर निजी निवेश पर भी सभी तरह के सरकारी नियंत्रण को खत्म करने का सुझाव दिया गया है।

बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट में प्रायवेट युनिवर्सिटी एक्ट लाये जाने का सुझाव देते हुए कहा गया है कि सरकार की भूमिका मात्र फेसिलिटेटर की होनी चाहिए।

पहली बार उच्च शिक्षा में एफ. डी. आई. के निवेश की जोरदार सिफारिश की गई है।

सेल्फ फायनेंसिंग प्रायवेट सेंटर और बाजार की मांग पर आधारित शिक्षा की व्यवस्था पर जोर दिया गया है।
सब्सिडी के अंत और फुल कोस्ट रिकवरी के तहत विद्यार्थियों से फीस लेने एवं इसके लिए कर्ज की व्यवस्था की बात की गयी है।

विद्यार्थियों को उपभोक्ता के अधिकार के लिए संस्थानों के रेटिग का ंसुझाव दिया गया है। इसके लिए NAAC जैसी संस्था की स्थापना का सुझाव दिया गया है।

इसके साथ ही सरकारी संस्थानों के डिसइनवेस्टमेन्ट और किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि पर रोक लगाने का सुझाव दिया गया है।

छात्र और शिक्षक एवं कर्मचारियों के यूनियन पर पूर्ण प्रतिबंध की बात की गई है। 

बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट के बाद देश के सभी विश्वविद्यालयों के लिए माॅडल एक्ट लाने का प्रयास किया गया, हालाकि देशभर में हुए जबरदस्त विरोध के कारण इसे संसद में पास नहीं किया जा सका।
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सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण अब राष्ट्र-निर्माण बन गया है। सरकारी स्कूल हों या सरकार अस्पताल हों - नष्ट कर दिये गये हैं। इसी की अगली कड़ी उच्च शिक्षा है। कुछ एक टापुओं को छोड़ दें तो देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों को या तो खत्म कर दिया गया
(बया, जनवरी - मार्च 2017, पृ.28-30 - सत्ता और पूंजी के प्रपंच में दम तोड़ती उच्च शिक्षा व्यवस्थ, लेखक - राजीव कुँवर, से साभार)

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