चोचंजी का कर्मवाद
आज चोचंजी मध्यांतर में पहुँचे। वैसे अन्य दिनों के मुकाबले वे कुछ जल्दी पहुँच गये थे।
आसन में जमते ही लंचबाक्स खोलकर बैठ गये। घी से सिंकी पराठे की खुशबू कमरे में भर गयी। बड़े इत्मिनान से वे लंच करने लगे। शुद्ध देशी घी से पोषित उसकी त्वचा बड़ी मुलायम, चिकनी और तेजस्वी दिख रही थी। उनकी आँखों में अध्यात्म बल से उत्पन्न आत्मविश्वास की ज्योति झिलमिला रही थी। धार्मिक कर्मकांड के तेज से उसका मुखमण्डल प्रकाशित हो रहा था। तीसरे नेत्र की भाँति माथे पर सिद्ध सिंदूरी तिलक तो था ही। उसकी वाणी शहद के समान और मुस्कान सुध-बुध हरनेवाली होती है। सूर-तुलसी की भाषा में कहूँ तो - उसके इस दिव्य व्यक्तित्व को देखकर जिनकी आँखें तृप्त न हों, उनका इस संसार में जीना व्यर्थ है।
तभी भावी साहब का आगमन हुआ। चोचंजी से नजरें मिली और उनकी नजरों में चमक आ गयी। भावी साहब कुछ कह पाते इससे पहले ही चोचंजी की मधुर वाणी गूंज उठी - ’’पंडाल में सारा समय आपको ढूँढता रहा। कहाँ थे आप?’’
अपराधबोध से ग्रस्त होकर भावी साहब ने कहा - ’’क्या बताऊँ सर! आटोवालों ने तंग कर रखा है। साला! समय पर कोई पहुँचता ही नहीं। अपने देश में सबसे बड़ी समस्या यही है - समय पर न तो कोई अॅफिस पहुँचता है और न ही ईमानदारी से कोई अपना काम ही करता है। बच्चों को स्कूल छोड़ने जाना पड़ा। ऊपर से मटन के लिए श्रीमती जी की जिद्द। आज ही जिद्द करना था उनको भी। मटन मार्केट जाना पड़ा। अखर गया सर। साला! इतने बड़े संत का प्रवचन मिस हो गया।’’
चोचंजी ने भावी साहब के अपराधबोध को उद्दीप्त करते हुए कहा - ’’बहुत पहुँचे हुए संत हैं। मानना पड़ेगा। कर्मवाद को इतना बेहतर तीरीके से और इतने सरल शब्दों में आज तक किसी ने नहीं समझाया होगा। मजा आ गया।’’
तब तक चैथे पिरियेड की घंटी बजने लगी। हम सब क्लस रूम की ओर जाने लगे। चोचंजी ने अपनी कलाई घड़ी देखी। भावी साहब ने कहा - ’’अरे बैठो यार। कौन क्या कहेगा साला। सुनाओ कुछ, क्या कहा संत ने?’’
और कर्मवाद पर चोचंजी की व्याख्या शुरू हो गई।
और छुट्टी की घंटी बजने के बाद जब हम स्टाफ रूम में आये, चोचंजी अपना प्रवचन समाप्त करते हुए कह रहे थे - ’’मनुष्य जिस काम की रोटी खाता है, उस काम के साथ कभी छल नहीं करना चाहिए।’’
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