रविवार, 21 मई 2017

आलेख

साहित्य और संस्कृति की मासिक पत्रिका ’आजकल’ मई 2017 ’भारतीय नव जागरण और हिंदी’ अंक महत्वपूर्ण और संग्रहणीय है। इस अंक में विद्वान लेखकों के द्वारा भारतीय नवजागरण में हिंदी क्षेत्र के योगदानों को तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसी तारम्य में, अंक में अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी गई है। कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं -
1.
1947 में अंग्रेजी राज से मुक्त होने के बाद जब संविधान बनने लगा, तब हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने नवजागरण और प्रबोधन के मूलभूत आदर्शों को अपने आदर्श के रूप में स्वीकार किया, लेकिन तब भी भारत की सामाजिक हकीकत इन आदर्शों के विपरीत थी। संविधान आत्मसात करते हुए 26 नवंबर 1949 को डाॅ. अंबेडकर ने बहुत पीड़ा के साथ कहा था - ’26 जनवरी, 1949 (1) को हम अंतरविरोधों के  जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में समत्व होगा और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में विषमता रहेगी। ..... अंतरविरोधों का यह जीवन हम कब तक जीते रहेंगे? हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समत्व से कब तक इंतिजार करते रहेंगे।’
(पृष्ठ 17)
(1) - (भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ था अतः लेख में ’26 जनवरी, 1949’ भ्रम पैदा करता है।)
2.
विवेकानंद ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है कि , ’पुरोहिताई भारत का एक अभिशाप है। क्या कोई व्यक्ति अपने ही भाई को अपदस्थ कर अपनी अपदस्थता से बच सकता है?
(पृष्ठ 39)

3.
सावित्री बाई फूले जैसी सशक्त स्त्री नवजागरण की चर्चा में कहीं नहीं हैं। सन् 1890 में जो स्त्री अपने पति की अर्थी उठा रही है, अपने पति को दफना रही है, कविता संग्रह प्रकाशित कर रही है, पति के भाषणों को प्रकाशित कर रही है, सन् 1848 में लड़कियों की शाला की औपचारिक शिक्षक है, पारंपरिक समाज द्वारा इस कार्य के लिए पत्थर की चोटें बर्दास्त कर रही है, लड़कियों को शिक्षित करने के अपराध पर उस  पर रास्तेभर गोबर फेंका जाता है, लोग उस पर थूँकते हैं और वह अपने हाथ के थैले में एक साड़ी लेकर चलती है, शाला में जाकर नहाती है, दूसरी साड़ी पहनती है और लड़कियों को पढ़ाती है; ऐसी सशक्त चैतन्य स्त्री का जिक्र नवजागरण की चर्चा में क्यों नहीं है?
(पृष्ठ 40)

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